गूंज रहा था अट्हास सभा में
दुराचारी दुष्ट दुर्योधन का।
थक गया था प्रयत्न सब
शांतिदूत मुरलीधरश्री कृष्ण का।
तय अब था “युद्ध” कुरुक्षेत्र में
प्रज्वलित हुई सब ज्वालाएं ।
बज गया शंखनाद समर में
सज्जित हो गई तब पताकाएं।
मात्र निमित्त था “युद्ध “का
पांचाली का उन्मुक्त हास्य,
कुटिल शकुनि की द्युत कीड़ा,
दुशासन का असह्य- अत्याचार।
जो “विष” उन्हें बरबस
रणभूमि में लाता है।
कर विचलित सत्य पथ से
अधर्म की और वही ले जाता है।
नि शस्त्र हो पार्थ दिग्भ्रमित हो जाते हैं
देखकर ज्ञान माधव उन्हें समझाते हैं।
स्वार्थ और परमार्थ से सदा उच्च
“कर्मयोग” है यह केशव बतलाते हैं।
” युद्ध” घरों में हो अथवा सरहदों पर
” बम” भवनों पर गिरे या खलिहानों पर।
वार प्रतिवार ,तीर,तोप, जैविक रसायनिक
हथियारों से हो या विषाणु ,परमाणु का मानवों पर।
जय हो या पराजय अपनों की या गैरों की
परिणाम – ज़ोहर दग्ध वीरांगएं,अंग भंग हैं वीरों के ।
अनाथ बालक, माता पिता, विधवाएं रोती है।
कोख इस धरती की ही सदा बांझ होती है।
डॉ सुनीता शर्मा “शानू”
गांधीनगर गुजरात
स्वरचित मौलिक रचना