मन व्यथा से भर जाता है जब हम एक तरफ तो अपने को आधुनिकीकरण और शिक्षित समाज का हिस्सा मानते हुए गर्व से फूले नहीं समाते, वहीं दूसरी ओर समाज के कुछ दकियानूसी परंपरा के आवरण को ओढ़े हुए कुछ लोग आज भी शिक्षा से दूर और उनमें से कुछ शिक्षित भी उसी रीति रिवाज का जामा पहनाते हुए अपनी संस्कृति का नाम देते हुए यह ‘ बाल विवाह ‘नामक बीमारी को मिटाने के स्थान पर उसे अमर बनाने का जैसे प्रण ही कर रखे हैं। ऐसे ही एक जीवंत कहानी जो की सत्य घटना पर आधारित है उससे पाठकों से परिचित कराना चाहती हूं और साथ ही उम्मीद करती हूं की नए समाज की स्थापना में दृढ़ निश्चय के साथ इस प्रथा को जड़ से खत्म करने में मेरे तलवार रूपी कलम को अपना सहयोग प्रदान करें।

राजस्थान के एक छोटे से गांव में एक मध्यम वर्गीय परिवार रहता है पांच बहन दो भाई और उनके माता-पिता। सभी बहनों की शादी बचपन में कर दी गई। धीरे धीरे समय बीता जा रहा था तीनों बहन ससुराल जा चुकी थी। छोटी दो बहने एक ही परिवार में ब्याही गई थी। चौथे नंबर की बेटी का नाम शालू और सबसे छोटी मीना उन दोनों के पति पढ़ते थे कुछ वर्षों बाद शालू के पति की नौकरी फौज में लग जाती है और वह नौकरी पर चला जाता है कुछ माह बीतने के बाद वह घर लौटकर आता है फिर शालू के पिता उसके विदाई के लिए मुहूर्त निकलवाने के लिए उनके ससुराल जाते हैं परंतु लड़के ने शालू को अपनाने से इंकार कर दिया। बहुत मिन्नतें हुई समाज का दबाव भी पड़ा किंतु वो अपने फैसले पर अडिग रहा और आखिर शालू को नहीं अपनाने के कारण दूसरी बहन को भी उस घर में नहीं भेजा गया और दोनों की शादी टूट गई। अब उसके पिता को बहुत पछतावा हुआ किंतु वह कुछ दिनों के लिए ही था अभी भी उनके समाज में यह कुरीति चली आ रही है जो की बहुत ही निंदनीय है।